Wednesday, April 7, 2010

महेष अग्रवाल की एक गजल

कैसे-कैसे हैं जीवन के रंग यहां
कुछ लम्हे रंगीन तो कुछ बदरंग यहां

रोटी के हर एक निवाले से पूछो
कैसे रोज लड़ी जाती है जंग यहां

दूर गगन तक फैल रही हैं इच्छाएं
और जिन्दगी होती जाती है तंग यहां

खट्टे, मीठे,कड़वे अनुभव से हमने
सीख लिया है अब जीने का ढंग यहां

अय्याषी में कैद हुआ है जन-सेवक
और सियासत करती है हुड़दंग यहां

कैसे-कैसे हैं दस्तूर जमाने के
फूलों के बदले मिलते हैं संग यहां

सिर्फ मोहब्बत ही आनंद नहीं देती
और कई हैं जीवन के रस-रंग यहां

- महेष अग्रवाल जलेस भेल के वरिष्ठ सदस्य हैं ।
यह रचना उनके नए गजल संग्रह ‘जो कहूंगा सच कहूंगा’ से साभार