Saturday, November 21, 2009

कविता

कविता: नीलेष रघुवंषी

गांठ

क से शुरू होता है और खत्म होता है र पर
खत्म क्या होता है
जाने कितनों को खत्म करता है
ये अपने भीतर ऐ की मात्रा और आधे न को छिपाए मुस्कराता है
इसका आधा न कहता है मेरे रास्ते न आओ
कुछ भी हासिल न होगा तुम्हें
न जीवन न मृत्यु न हार न जीत
इसकी अनगिनत कोषिकाएं
लपलपाती झपट्टा मारती हैं
रोज झाड़-पोंछकर बुहारते हैं हम इन कोषिकाओं को
ये कोषिकाएं अपनी झाड़न के साथ ले गई जाने कितने जरूरी कागजात
इनके चलते हर दूसरा काम लगता है अब फिजूल
तेज गति की रेल है ये कोषिकाएं उतर चुकी हैं जो पटरी से
समझ आया हमें
पहली बार पेन की स्याही खत्म होना किसे कहते हैं
कितनी गांठों को जानते थे हम
महीन से महीन गांठ लगाई हमने धागे में
इसकी गांठ के बारे में तो कभी सोचा ही नहीं
मृत्यु का वारंट...कमबख्त कोषिकाएं कैंसर की
जीवन को निगलने के सिवाय कुछ और नहीं सूझता तुम्हें
मरती नहीं हो तुम कोई और नहीं सकता तुम्हें
इतना याद रखना रांग नंबर डायल किया तुमने
सुनो अंधेरे को उजाले में बदलता है आधा चांद ।


गजल: जहीर कुरेषी

गजल: जहीर कुरेषी



मुस्कुराना भी एक चुम्बक है
मुस्कुराओ अगर तुम्हें शक है ।


उसको छू कर कभी नहीं देखा
उससे संबंध बोलने तक है ।


डाॅक्टर की सलाह से लेना
ये दवा भी जहर-सी घातक है ।


दिन में सौ बार खनखनाती है
एक बच्चे की बंद गुल्लक है ।


उससे उड़ने की बात मत करना
वो जो पिंजड़े में आज बंधक है ।


हक्का-बक्का है बेवफा पत्नी
पति का घर लौटना, अचानक है ।


‘स्वाद’ को पूछना है ‘बंदर’ से
जिसके हाथ और मुंह में ‘अदरक’ है ।



ऽ जहीर भाई जलेस ग्वालियर के सचिव हैं ।

Friday, November 20, 2009

कविता

कविता: रवींद्र स्वप्निल प्रजापति

जहां बहुत सारे कंप्यूटर रखे हों


रंगीन दुनिया में सब चीजें स्क्रीन जैसी दिखने लगी हैं
जहां एक की दबाते ही पृथ्वी डाटा बनकर सामने आने लगती है
और एक लड़का अपने प्रेम पर सर्फिंग शुरू कर देता है

उसने डाटाओं में प्रेम के लिए थोड़ा-सा कोना बचा लिया है
और घूमने लगता है इधर-उधर

नेट पर डाटा प्राप्त करता हुआ लड़का
कह देता है - प्लीज वेट कीजिएगा
और झुक जाता है स्क्रीन पर

यहां बहुत सारी स्क्रीनों के बीच स्पेस है
जहां एक लड़का और एक लड़की खड़े हो जाते हैं
वे साइबर स्पेस में भी बचाए रखना चाहते हैं अपनी जगह
सबने दुनिया में प्यार के लिए जगह बचा ली है

यह प्यास हर कहीं झलकती रहती है दुनिया में
और शांत जगहों के लिए लोग भटकते रहते हैं
मैं अपने दोस्त से कहना चाहता हूं
थोड़ी-सी शांत जगह बचाकर रखना अपने जीवन में ।

Monday, November 16, 2009

कविता

गजल: विनोद तिवारी

वह मेरे विपरीत नहीं है
लेकिन मेरा मीत नहीं है

अंत काल तक साथ निभाना
यह दुनिया की रीत नहीं है

इस बस्ती में सब डरते हैं
कौन है जो भयभीत नहीं है

मुंह देखे मीठी बाते हैं
लेकिन सच्ची प्रीत नहीं है

जो अंतरतम से निकला हो
गीत नहीं है, संगीत नहीं है

बने हुए हैं सभी विजेता
पर कोई जगजीत नहीं है

कविता



कविता: प्रेमषंकर रघुवंषी


ठीक पहचान के लिए


पानी

जब सदियों से ठंडा पड़ा हो

तो उसे खौलाना जरूरी हो जाता है
वह बादल, बिजली,आकाष से गुजरकर

खुद को ठीक से पहचानने लगता है
पहाड़ से नीचे मैदान की तरफ बढ़ते हुए ।


कविता: हरिषंकर अग्रवाल


नदी


नदी, तुम पहाड़ों को तोड़ती हुई

कुदाली की नोक से बंजर पर कविता लिखती हो
नदी, तुम रोषनी की तरह बहो

ओठों के बीच जहां अंधेरा बैठा है और खेत को निगल रही है बागुड़

नदी, तुम बागुड़ में आग की तरह फैलो
नदी, तुम मैदान के जलते हुए सीने में फफोलों की तरह उभरो

ताकि खून-पसीना एक करते लोग

हाथ उंचे कर अपने हक मांग सकें और

पक्षियों की तरह गा सकें सुबह का गीत ।




कविता: नसीम अख़्तर




कोई छोटी बात दिल तक न पहुंच पाती अगर भावना नहीं होती
कोई बड़ी चोट पीड़ा न पहुंचाती अगर चेतना न होती
किसी दर्द का एहसास तीव्र न हो पाता अगर संवेदना न होती
कोई दिल की बात कोई बड़ा आघात
कौन करता शब्दों में बयां अगर कविता न होती
अपनी व्यथा को अपनी अनुभूति को कैसे रचते कागज पर
अगर रचना न होती
जब आहत होती है भावना
पीड़ित होती है संवेदना
लगती है चोट चेतना को

तब अनुभूति कविता बन उभर आती है

शब्दों के रूप में कागज पर रचना छा जाती है ।

कविता

कविता: बलराम गुमास्ता

धरती कहीं नहीं जाती

जब आत्मघाती मौसम

ढोकर लाती हवाएं करती नहीं हमें, बेचैन
किनारों से गुज़रते

ध्यान नहीं बटातीं प्रदूषित नदियां
बिलखता-भूखा आदमी

सड़ते पानी की पीड़ा

रूका हुआ जल रोक नहीं पाता हमें
जर्जर होते मानवीय, सरोकारों बीच

पेड़ तले बैठ, सुस्ताते सहज ही प्राप्त करते उन्हें,

काटे जाने का ज्ञान कहीं पहुंच पाने की

निर्वाण यात्रा पर निकल पड़ते,

अपनाते, आम रास्ते

पहुंचते और-और रास्तों तक

खास रास्तों से, पहुंचते घरों को
हम ,

जान ही नहीं पाते कि

यूं-घरों तक जाना या

जाना और-और रास्तों तक

कहीं जाना नहीं होता
रास्ते धरती पर होते हैं और

धरती कहीं नहीं जाती ।

Friday, August 21, 2009

कविता

जब भी लिखो अंगार लिखो

गीत भले दो चार लिखो
जब भी लिखो अंगार लिखो

नदी नांव संयोग लिखो तो
भंवर लिखो पतवार लिखो

सूखी धरती के आंंचल पर
कुछ तो मेघ मल्हार लिखो

धन धरती के बंटवारे पर
श्रम को भी हकदार लिखो

इक दिन टूटेंगी जंज़ीरें
चोटें बारंबार लिखो

गर मनुष्य की कथा लिखो तो
दर्दाें से साभार लिखो

अब तक नहीं लिखा यदि तुमने
तो अवश्य इस बार लिखो

शिवकुमार अर्चन

Thursday, August 20, 2009

चादर

अपनी चादर में
नहीं समाते
महत्वाकांक्षा के पैर

चादरों में
सिमटी रहेंगी
यदि इच्छाएं
तो उनसे
अपने पैर आगे नहीं
पसारे जाएंगे

अपनी चादर से
पैर बाहर फैलाता हूं
और अपनी
चादर बड़ी बनाता हूं ।

महेन्द्र गगन,संपादक पहले पहल, भोपाल


हम जानते हैं

हवा विपरीत है, हम जानते हैं,
हवाओं का भी दम-खम जानते हैं ।
अगर तुम जानते हो सारी बातें,
तो हम भी तुम से कुछ कम जानते हैं ।
युवा नदियों के बूढ़े सागरों से,
कहां होते हैं संगम, जानते हैं ।
मुझे वे क्षण नहीं अब याद,लेकिन,
वे सारे दृश्य अलबम जानते हैं ।
धरा पर मौत के सौदागरों को,
बहुत अच्छी तरह `यम´ जानते हैं ।
कहां तक जाएंगे ये क्रांतिकारी,
ये हर दल-बल के परचम जानते हैं
वे अपने बाद, अपने दुश्मनों का,
ग़्ाज़ल-साहित्य में क्रम जानते हैं ।

जहीर कुरेशी,सचिव, जलेस, ग्वालियर



आईना देखा

एक चेहरा नया नया देखा
रोशनी से लिखा हुआ देखा
आप किस किस की बात करते हैं
जिसने देखा है, अजूबा देखा
देख ली उम्र, देख ली दुनिया
क्या कभी तुमने आईना देखा
देखते रोज आईना फिर भी
ख़ुद को देखा नहीं तो क्या देखा
अपने भीतर कहीं गुफाओं में
एक खूंखार भेड़िया देखा
देखना और कुछ नहीं मुझको
मैंने बच्चे में ही खु़दा देखा ।

डा. किशन तिवारी,उपाध्यक्ष,जलेस,भेल,भोपाल


रास्ते की मिट्टी

कुछ रास्ते की मिट्टी ही काग़ज़ में बांध ले
मुिम्कन है वापस आए तो पक्की सड़क मिले
मिट्टी का इक दिया भी तो चांदी के घर में रख
अजदाद से न टूटे कभी तेरे सिलसिले
कब तक रहेंगे सर पे पुरानी छतों के बांस
झड़ती हैं पत्तियां भी अगर शाख़े गुल हिले
कितने मुसाफिर आंखें बिछाए हैं राह में
अब के जो आए बस, तो हमें भी जगह मिले
तितली के पर मसल कर जो नन्हा है दिल में खुश
यह कौन उससे पूछे तुझे रंग भी मिले
पौधे की शाख तुमने चमन से चुरा तो ली
यह तो बताओ, फूल भी आंगन में कुछ खिले

बद्र वास्ती, भोपाल

कविता

कथन :

विज्ञान और कला में ये फ़र्क नहीं है कि वे अलग-अलग वस्तुओं या विषयों से संबंध रखते हैं बल्कि यह है कि वे उन्हीं विषयों से अलग-अलग तरह का व्यवहार करते हैं । विज्ञान हमें किसी परिस्थिति के बारे में सैद्धांतिक ज्ञान प्रदान करता है जबकि कला इस परिस्थिति में होने वाली अनुभूति का, जो विचारधारा के समतुल्य है । ऐसा करते हुए वह हमें विचारधारा के वास्तविक चरित्र से अवगत कराता है और इस तरह हमें उसकी संपूर्ण समझ की ओर ले चलता है तो इस विचारधारा का भी वैज्ञानिक ज्ञान है ।

संतोष चौबे द्वारा अनूदित टैरी इगल्टन के एक पाठ का अंश


टूटती है सदी की खामोशी


टूटती है सदी की खामोशी,
फिर कोई इन्क़लाब आएगा ।

माालियो, तुम लहू से सींचो तो,
बाग़ पर फिर शबाब आएगा ।

सारा दु:ख लिख दिया भविष्यत् को,
मेरे ख़़त का जवाब आएगा ।

आज गर तीरगी है िक़स्मत में,
कल कोई आफ़ताब आएगा ।

विनोद तिवारी, अध्यक्ष,जलेस कोलार भोपाल

निराशा

निराशा एक बेलगााम घोड़ी है

न हाथ में लगाम होगी न रकाब में पांंंव
खेल नहीं उस पर गद्दी गांंंठना
दुलत्ती झाड़ेगी और जमीन पर पटक देगी
बिगाड़ कर रख देगी सारा चेहरा मोहरा

बगल में खड़ी होकर
जमीन पर अपने खुर बजाएगी
धूल के बगूले बनाएगी
जैसे कहती हो
दम है तो दुबारा गद्दी गांठो मुझ पर

भागना चाहोगे तो भागने नहीं देगी
घसीटते हुए ले जाएगी
और न जाने किन जंगलों में छोड़ आएगी !

राजेश जोशी

नव वर्ष

दिन भर आटे का मीजान बांधते मजूर,
पेड़ों की ओट
अंधेरे में बफ़Z की रात काटते भील
बतियाते बतियाते
सो गए हैं गहरी नींद

नशे में धुत रात,जश्न
गजर बारह का
कोई भी तोड़ नहीं पाया
हाड़-तोड़ दिहाड़ी से टूटे जिस्म की नींद

पुश्तैनी हांडी वहीं पड़ी रही, ख़ामोश ।

रतन चौहान