Friday, August 21, 2009

कविता

जब भी लिखो अंगार लिखो

गीत भले दो चार लिखो
जब भी लिखो अंगार लिखो

नदी नांव संयोग लिखो तो
भंवर लिखो पतवार लिखो

सूखी धरती के आंंचल पर
कुछ तो मेघ मल्हार लिखो

धन धरती के बंटवारे पर
श्रम को भी हकदार लिखो

इक दिन टूटेंगी जंज़ीरें
चोटें बारंबार लिखो

गर मनुष्य की कथा लिखो तो
दर्दाें से साभार लिखो

अब तक नहीं लिखा यदि तुमने
तो अवश्य इस बार लिखो

शिवकुमार अर्चन

Thursday, August 20, 2009

चादर

अपनी चादर में
नहीं समाते
महत्वाकांक्षा के पैर

चादरों में
सिमटी रहेंगी
यदि इच्छाएं
तो उनसे
अपने पैर आगे नहीं
पसारे जाएंगे

अपनी चादर से
पैर बाहर फैलाता हूं
और अपनी
चादर बड़ी बनाता हूं ।

महेन्द्र गगन,संपादक पहले पहल, भोपाल


हम जानते हैं

हवा विपरीत है, हम जानते हैं,
हवाओं का भी दम-खम जानते हैं ।
अगर तुम जानते हो सारी बातें,
तो हम भी तुम से कुछ कम जानते हैं ।
युवा नदियों के बूढ़े सागरों से,
कहां होते हैं संगम, जानते हैं ।
मुझे वे क्षण नहीं अब याद,लेकिन,
वे सारे दृश्य अलबम जानते हैं ।
धरा पर मौत के सौदागरों को,
बहुत अच्छी तरह `यम´ जानते हैं ।
कहां तक जाएंगे ये क्रांतिकारी,
ये हर दल-बल के परचम जानते हैं
वे अपने बाद, अपने दुश्मनों का,
ग़्ाज़ल-साहित्य में क्रम जानते हैं ।

जहीर कुरेशी,सचिव, जलेस, ग्वालियर



आईना देखा

एक चेहरा नया नया देखा
रोशनी से लिखा हुआ देखा
आप किस किस की बात करते हैं
जिसने देखा है, अजूबा देखा
देख ली उम्र, देख ली दुनिया
क्या कभी तुमने आईना देखा
देखते रोज आईना फिर भी
ख़ुद को देखा नहीं तो क्या देखा
अपने भीतर कहीं गुफाओं में
एक खूंखार भेड़िया देखा
देखना और कुछ नहीं मुझको
मैंने बच्चे में ही खु़दा देखा ।

डा. किशन तिवारी,उपाध्यक्ष,जलेस,भेल,भोपाल


रास्ते की मिट्टी

कुछ रास्ते की मिट्टी ही काग़ज़ में बांध ले
मुिम्कन है वापस आए तो पक्की सड़क मिले
मिट्टी का इक दिया भी तो चांदी के घर में रख
अजदाद से न टूटे कभी तेरे सिलसिले
कब तक रहेंगे सर पे पुरानी छतों के बांस
झड़ती हैं पत्तियां भी अगर शाख़े गुल हिले
कितने मुसाफिर आंखें बिछाए हैं राह में
अब के जो आए बस, तो हमें भी जगह मिले
तितली के पर मसल कर जो नन्हा है दिल में खुश
यह कौन उससे पूछे तुझे रंग भी मिले
पौधे की शाख तुमने चमन से चुरा तो ली
यह तो बताओ, फूल भी आंगन में कुछ खिले

बद्र वास्ती, भोपाल

कविता

कथन :

विज्ञान और कला में ये फ़र्क नहीं है कि वे अलग-अलग वस्तुओं या विषयों से संबंध रखते हैं बल्कि यह है कि वे उन्हीं विषयों से अलग-अलग तरह का व्यवहार करते हैं । विज्ञान हमें किसी परिस्थिति के बारे में सैद्धांतिक ज्ञान प्रदान करता है जबकि कला इस परिस्थिति में होने वाली अनुभूति का, जो विचारधारा के समतुल्य है । ऐसा करते हुए वह हमें विचारधारा के वास्तविक चरित्र से अवगत कराता है और इस तरह हमें उसकी संपूर्ण समझ की ओर ले चलता है तो इस विचारधारा का भी वैज्ञानिक ज्ञान है ।

संतोष चौबे द्वारा अनूदित टैरी इगल्टन के एक पाठ का अंश


टूटती है सदी की खामोशी


टूटती है सदी की खामोशी,
फिर कोई इन्क़लाब आएगा ।

माालियो, तुम लहू से सींचो तो,
बाग़ पर फिर शबाब आएगा ।

सारा दु:ख लिख दिया भविष्यत् को,
मेरे ख़़त का जवाब आएगा ।

आज गर तीरगी है िक़स्मत में,
कल कोई आफ़ताब आएगा ।

विनोद तिवारी, अध्यक्ष,जलेस कोलार भोपाल

निराशा

निराशा एक बेलगााम घोड़ी है

न हाथ में लगाम होगी न रकाब में पांंंव
खेल नहीं उस पर गद्दी गांंंठना
दुलत्ती झाड़ेगी और जमीन पर पटक देगी
बिगाड़ कर रख देगी सारा चेहरा मोहरा

बगल में खड़ी होकर
जमीन पर अपने खुर बजाएगी
धूल के बगूले बनाएगी
जैसे कहती हो
दम है तो दुबारा गद्दी गांठो मुझ पर

भागना चाहोगे तो भागने नहीं देगी
घसीटते हुए ले जाएगी
और न जाने किन जंगलों में छोड़ आएगी !

राजेश जोशी

नव वर्ष

दिन भर आटे का मीजान बांधते मजूर,
पेड़ों की ओट
अंधेरे में बफ़Z की रात काटते भील
बतियाते बतियाते
सो गए हैं गहरी नींद

नशे में धुत रात,जश्न
गजर बारह का
कोई भी तोड़ नहीं पाया
हाड़-तोड़ दिहाड़ी से टूटे जिस्म की नींद

पुश्तैनी हांडी वहीं पड़ी रही, ख़ामोश ।

रतन चौहान