Thursday, August 20, 2009

चादर

अपनी चादर में
नहीं समाते
महत्वाकांक्षा के पैर

चादरों में
सिमटी रहेंगी
यदि इच्छाएं
तो उनसे
अपने पैर आगे नहीं
पसारे जाएंगे

अपनी चादर से
पैर बाहर फैलाता हूं
और अपनी
चादर बड़ी बनाता हूं ।

महेन्द्र गगन,संपादक पहले पहल, भोपाल


हम जानते हैं

हवा विपरीत है, हम जानते हैं,
हवाओं का भी दम-खम जानते हैं ।
अगर तुम जानते हो सारी बातें,
तो हम भी तुम से कुछ कम जानते हैं ।
युवा नदियों के बूढ़े सागरों से,
कहां होते हैं संगम, जानते हैं ।
मुझे वे क्षण नहीं अब याद,लेकिन,
वे सारे दृश्य अलबम जानते हैं ।
धरा पर मौत के सौदागरों को,
बहुत अच्छी तरह `यम´ जानते हैं ।
कहां तक जाएंगे ये क्रांतिकारी,
ये हर दल-बल के परचम जानते हैं
वे अपने बाद, अपने दुश्मनों का,
ग़्ाज़ल-साहित्य में क्रम जानते हैं ।

जहीर कुरेशी,सचिव, जलेस, ग्वालियर



आईना देखा

एक चेहरा नया नया देखा
रोशनी से लिखा हुआ देखा
आप किस किस की बात करते हैं
जिसने देखा है, अजूबा देखा
देख ली उम्र, देख ली दुनिया
क्या कभी तुमने आईना देखा
देखते रोज आईना फिर भी
ख़ुद को देखा नहीं तो क्या देखा
अपने भीतर कहीं गुफाओं में
एक खूंखार भेड़िया देखा
देखना और कुछ नहीं मुझको
मैंने बच्चे में ही खु़दा देखा ।

डा. किशन तिवारी,उपाध्यक्ष,जलेस,भेल,भोपाल


रास्ते की मिट्टी

कुछ रास्ते की मिट्टी ही काग़ज़ में बांध ले
मुिम्कन है वापस आए तो पक्की सड़क मिले
मिट्टी का इक दिया भी तो चांदी के घर में रख
अजदाद से न टूटे कभी तेरे सिलसिले
कब तक रहेंगे सर पे पुरानी छतों के बांस
झड़ती हैं पत्तियां भी अगर शाख़े गुल हिले
कितने मुसाफिर आंखें बिछाए हैं राह में
अब के जो आए बस, तो हमें भी जगह मिले
तितली के पर मसल कर जो नन्हा है दिल में खुश
यह कौन उससे पूछे तुझे रंग भी मिले
पौधे की शाख तुमने चमन से चुरा तो ली
यह तो बताओ, फूल भी आंगन में कुछ खिले

बद्र वास्ती, भोपाल