Monday, November 16, 2009

कविता



कविता: प्रेमषंकर रघुवंषी


ठीक पहचान के लिए


पानी

जब सदियों से ठंडा पड़ा हो

तो उसे खौलाना जरूरी हो जाता है
वह बादल, बिजली,आकाष से गुजरकर

खुद को ठीक से पहचानने लगता है
पहाड़ से नीचे मैदान की तरफ बढ़ते हुए ।


कविता: हरिषंकर अग्रवाल


नदी


नदी, तुम पहाड़ों को तोड़ती हुई

कुदाली की नोक से बंजर पर कविता लिखती हो
नदी, तुम रोषनी की तरह बहो

ओठों के बीच जहां अंधेरा बैठा है और खेत को निगल रही है बागुड़

नदी, तुम बागुड़ में आग की तरह फैलो
नदी, तुम मैदान के जलते हुए सीने में फफोलों की तरह उभरो

ताकि खून-पसीना एक करते लोग

हाथ उंचे कर अपने हक मांग सकें और

पक्षियों की तरह गा सकें सुबह का गीत ।




कविता: नसीम अख़्तर




कोई छोटी बात दिल तक न पहुंच पाती अगर भावना नहीं होती
कोई बड़ी चोट पीड़ा न पहुंचाती अगर चेतना न होती
किसी दर्द का एहसास तीव्र न हो पाता अगर संवेदना न होती
कोई दिल की बात कोई बड़ा आघात
कौन करता शब्दों में बयां अगर कविता न होती
अपनी व्यथा को अपनी अनुभूति को कैसे रचते कागज पर
अगर रचना न होती
जब आहत होती है भावना
पीड़ित होती है संवेदना
लगती है चोट चेतना को

तब अनुभूति कविता बन उभर आती है

शब्दों के रूप में कागज पर रचना छा जाती है ।