Monday, November 16, 2009

कविता

कविता: बलराम गुमास्ता

धरती कहीं नहीं जाती

जब आत्मघाती मौसम

ढोकर लाती हवाएं करती नहीं हमें, बेचैन
किनारों से गुज़रते

ध्यान नहीं बटातीं प्रदूषित नदियां
बिलखता-भूखा आदमी

सड़ते पानी की पीड़ा

रूका हुआ जल रोक नहीं पाता हमें
जर्जर होते मानवीय, सरोकारों बीच

पेड़ तले बैठ, सुस्ताते सहज ही प्राप्त करते उन्हें,

काटे जाने का ज्ञान कहीं पहुंच पाने की

निर्वाण यात्रा पर निकल पड़ते,

अपनाते, आम रास्ते

पहुंचते और-और रास्तों तक

खास रास्तों से, पहुंचते घरों को
हम ,

जान ही नहीं पाते कि

यूं-घरों तक जाना या

जाना और-और रास्तों तक

कहीं जाना नहीं होता
रास्ते धरती पर होते हैं और

धरती कहीं नहीं जाती ।