Friday, March 2, 2012

राग तेलंग की कविताएँ

राग तेलंग की कविताएँ


|| आखिरी बार ||

जानता हूँ
आखिरी बार
मिला है यह
मनुष्य का जन्म

आखिरी बार
मिले हैं
इस जन्म में दोस्त

आखिरी बार के लिए हैं
ये आपसी संबंध

आखिरी बार हो रहा है
यह सब कुछ
पहली बार का

आखिरी बार
मुस्कुराना है यह

आखिरी बार
एकदम अचानक एक दिन
रूठ गई थी मेरी माँ

आखिरी बार
रहना है इस घर में

आखिरी बार
लिखना है यह सब कविता में

हमेशा के लिए
कुछ भी नहीं यहाँ
सब है आखिरी बार के लिए

इस सब आखिरी बार को
सहेजना होगा
बाँध के पक्का रखना होगा साथ
जब तक भी है

जीने के हर पल के लिए
काम आएँगी
आखिरी बार की बातें |


|| चाहता तो ||

अँधेरा था उन स्थानों पर
जहाँ प्यार से देखने भर से
पहुँच सकती थी उम्मीद
कोई रोशनी बनकर

अँधेरा वहाँ कई शक्लों में था
इसलिए पहुँचना जरुरी था
उसमें से दिखती
कोई पुकार पर किसी को

मैं चाहता था मुझसे पहले
वहाँ मेरी आवाज़ पहुँचे और लगे
दौड़ती आती हुई

अँधेरा गहरा था पाताल जैसा
जहाँ धरती के
कई लोगों की मुस्कुराहट
इकट्ठा बंद होकर
भय के अनेक दु:स्वप्नों से
लिपटी बैठी थी
घुटनों को थामे

चाहता तो कोई और भी
सर्वाधिक प्रसन्न
देख सकता था यह सब

मगर जब छूट भी यहाँ
यह सब नज़र अंदाज कर देने की
तो देखता क्यों कोई रूककर
जाते हुए तेजी में
रोशनी से रोशनी की तरफ |

|| तुम ही बताओ ||

ज़िंदगी की खुरदुरी सतह पर चल रहा हूँ और
अपनी शक्ल को
चिकना होते देखना चाहता हूँ
मैं भी कितना अजीब हूँ

हवा को हाथ में थामना चाहता हूँ
ये जानते हुए भी कि
पतंग उड़ाते हुए
मेरे हाथ में ही है डोर
अजीब है यह सब

ये देखते हुए कि मैं
अपने ही साए का पीछा करते हुए
पहुँचता हूँ आखीर में वहाँ
जहाँ कोई नहीं होता
मैं भी नहीं एक तरह से
पीछा करता हूँ खुद का आज भी

कोई भी रात
नहीं होती इतनी लंबी कि
सुबह का इंतज़ार
इंतज़ार ही बना रहे
यह जानते हुए भी
सशंकित सा
करता रहता हूँ काम दिन भर

इतने अँदर अपने कि
डूब जाएँ तो थाह भी न मिले
मेरी प्यास है कितनी गहरी
सात समुंदरों से भी ज्यादा
कहना चाहता हूँ सूखे गले से
पर कह नहीं पाता

मैं भी कितना अजीब हूँ
बाईं तरफ झुकना चाहता हूँ पर
ये सोचकर नहीं झुकता कि
घूमती हुई धरती का संतुलन
कहीं गड़बड़ा न जाए

मेरा झुकना व्यर्थ नहीं जाएगा ये जानता हूँ मैं
सही है उस दिशा में झुकना ये समझते हुए
मैं अपनी जगह कायम हूँ अब तक
मैं भी कितना अजीब हूँ

जानता हूँ
हूँ मैं अपनी ही गिरफ्त में
जाने कब से जकड़े हुए ख़ुद को
ख़ुद के ख़िलाफ
करता नहीं वक्त पर आज़ाद
अपने भीतर के परिंदे को
और चाहता हूँ
हो वैसा मेरे साथ
जैसा मैं चाहता हूँ |


|| एक दिन ऐसा होगा कि ||

ऊपर वाले को छोड़कर
और किसी को पता नहीं होगा और
हम चले जाएँगे एक दिन बिना बताए अचानक

जिन-जिनको होगा अफसोस
हमारे ऐसे चले जाने का
उनकी यादों में आएँगे हम ठीक वैसे ही बिना बताए

जो रो रहे होंगे उनको
दिलासा देने आएँगे हमारे जैसे हाथ
हालाँकि हमारी जगह भरी नहीं जाएगी हमारे जाने के बाद
फिर भी धीरे-धीरे वक्त भर देगा
हमारे जाने से पैदा हुआ खालीपन

हम चाहेंगे जिनसे किए हुए वादे हमें निभाने थे
वे उतने ही पूरे माने जाएँ
कुछ अधूरे काम जो हम छोड़ जाएँगे
उन्हें पूरा करेंगे हमारे अपने

हमारे सूखते हुए कपड़े
जब आखिरी बार रस्सी से उतारे जाएँगे
तब हम तुम्हारी स्मृतियों में भी झूल रहे होंगे याद रखना

हमारे बाद हमारे साथ गुज़ारे वक्त का जायजा
जिस पल तुम ले रहे होगे
तुम्हारी आँखों की कोर में उस वक्त नमी तैर रही होगी

चाँद से झाँकेंगे हम देखना
धरती की तरफ
इस दुआ के साथ कि
बची रहे जीवन की उम्मीद
हमेशा के लिए
आते रहें नन्हे मेहमान तय समय पर और
जाते रहें लोग हमारी तरह बिना बताए |


|| परिन्दे ||

हवा में उड़ते हुए
परिंदों का दम भी फूलता है
ठीक वैसे ही जैसे
पानी में डूबने से
कई बार बचते हैं तैराक

सड़क पर
हमारा कोई एक सफर
कितनी ही बार
होते-होते बचता है आखिरी
ऐसे कई वाकयों से भरा होता है
ऊपर का आसमान

लेकिन
हौसला सिर्फ हमारे पास ही नहीं
पंछियों के पास भी होता है

उनकी आँखें
हमसे बेहतर पहचान रखती हैं
शिकारी निगाहों की
इस हुनर के बगैर
बेमतलब होता है
बेहद ताकतवर पंखों का होना

खतरे कैसे भी हों
हवा में
उनकी मौजूदगी जानते हुए भी
बेखौफ उड़ान भरते रहते हैं परिंदे
एक ऐसा भी होता है हिम्मत का चेहरा

सात समंदरों से भी बड़े और
चौतरफा फैले इस बियाबान आसमान में
देखने में
बेहद अकेले दिखाई देते हैं परिंदे

मगर शायद ऐसा होता नहीं है
और तो और
हमारी इस फिक्र की
परवाह भी तो नहीं करते परिंदे |

[ प्रतिष्ठित 'रज़ा पुरस्कार' से सम्मानित राग तेलंग के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हैं तथा उनकी कविताएँ देश की सभी प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं | उनका नया संग्रह भी तैयार है | प्रख्यात लेखक उदय प्रकाश ने उनके एक कविता संग्रह के फ्लैप पर उनकी कविताओं का संक्षिप्त आकलन करते हुए उनकी कविताओं को 'हमारे समय की जरूरी और अर्थवान कविताओं' के रूप में रेखांकित किया है | राग तेलंग की यहाँ प्रकाशित कविताओं के साथ लगे चित्र समकालीन कला जगत में तेजी से अपनी पहचान बना रहे युवा चित्रकार सुरेश कुमार की पेंटिंग्स के हैं | ]

Wednesday, April 7, 2010

महेष अग्रवाल की एक गजल

कैसे-कैसे हैं जीवन के रंग यहां
कुछ लम्हे रंगीन तो कुछ बदरंग यहां

रोटी के हर एक निवाले से पूछो
कैसे रोज लड़ी जाती है जंग यहां

दूर गगन तक फैल रही हैं इच्छाएं
और जिन्दगी होती जाती है तंग यहां

खट्टे, मीठे,कड़वे अनुभव से हमने
सीख लिया है अब जीने का ढंग यहां

अय्याषी में कैद हुआ है जन-सेवक
और सियासत करती है हुड़दंग यहां

कैसे-कैसे हैं दस्तूर जमाने के
फूलों के बदले मिलते हैं संग यहां

सिर्फ मोहब्बत ही आनंद नहीं देती
और कई हैं जीवन के रस-रंग यहां

- महेष अग्रवाल जलेस भेल के वरिष्ठ सदस्य हैं ।
यह रचना उनके नए गजल संग्रह ‘जो कहूंगा सच कहूंगा’ से साभार

Wednesday, March 17, 2010

हास्य क्या है ? व्यंग्य क्या है ? - हरिकृष्ण तैलंग

हास्य क्या है? व्यंग्य क्या है?
सुबह-सुबह एक सज्जन आ गये। बोले- ’’एक कारण से कष्ट दे रहा हूं। बहुत वर्षो से पाठक हूं। मेरे पिता और स्वर्गीय दादा-परदादा भी (अच्छे) पाठक थे। मुझ तक वंश-परंपरा ने कोई तरक्की नहीं की। अब मैं चाहता हूं कि मेरी संतान यथास्थिति भंग करे। मेरा कुलभूषण उपाध्याय या आचार्य बन जावे।’’
’’इस तरह की वंशोन्नति में मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हंू? मेरी सिफारिश भला क्या काम आवेगी?’’ मैनें पूछा।
वह बोले- ’’सिफारिश नहीं, समझाइश चाहता हूं। बात यह है कि साहित्य की अनेक विधाएं मुझे अज्ञानी बनने पर विवश कर रही हैं। मैं उनमें अंतर नहीं कर पाता और विद्वानों के सामने मात्र पाठक की हैसियत रखता हूं। आप मुझे वह ज्ञान-दृष्टि दीजिये जिससे मैं किसी साहित्य-रचना की नई विशिष्टता पहचान सकूं।’’
मैं सोफे पर उकड़ूं बैठकर बोला - ’’आप किन-किन साहित्यिक विधाओं में गड़बड़ा जाते हैं? किन-किन रचना-शैलियों में आपको शंकाएं उत्पन्न होती हैं?’’
वह शांत भाव से बोले- ’’कई वर्षो से उपन्यास, नाटक, कहानी, कविता प्रगतिवादी, जनवादी, प्रतीकवादी, परम्परावादी, आतंकवादी, अश्लीलतावादी शैलियों आदि में लिखी जा रही हैं, गीत, नवगीत, अगीत का मसला है। कौन सा गीत कब गीत है, कब और कैसे वह नवगीत हो जाता है, गीत कब अगीत होता है, समझ में नहीं आता।’’
मैं बोला- ’’भाई, यह सब साहित्य की बारीक बातें हैं। अच्छा होता, यदि आप किसी विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफेसर के पास जाते। वह साहित्यविधाओं का पोस्टमार्टम ज्यादा बारीकी से करते हैं। उनके पास पचासों शास्त्रीय औजार हैं जो विधाओं का रेशा-रेशा अलग करने में सक्षम हैं। वह साहित्यिक बारीकियो को शास्त्रीय ढंग से समझा सकते हैं।’’
वह सज्जन तपाक से बोले- ’’आदरणीय, पहले मैनें भी यही सोचा था। पर अब मैं किसी प्राध्यापक के पल्ले नहीं पड़ना चाहता। वह अकेला महारथी मुझ नासमझ अभिमन्यु को जमीन पर खड़ा देख अपने साहित्यशास्त्र के चक्रव्यूह में फंसाकर मेरा दम तोड़ देगा। तब मेरी संतान फिर पाठक की पाठक रह जावेगी। नहीं, नहीं। अगली पीढ़ी के लिए मैं यह संकट मोल लेना नहीं चाहता। फिर प्राध्यापकीय समझ तो शिक्षा सचिव के अनुसार बदलती रहती है। शिक्षा सचिव जिसे कविता कहे, प्राध्यापक उसके सांचे तैयार करता है। कभी-कभी कविता को उसके सांचे सविता और परहिता की तरह इस्तेमाल के लिये रूपायित कर देते हैं। हम जैसे उस परिवर्तनीय शिक्षा सचिवीय समझ को अपने पल्ले में नहीं बांध पावेंगे। आप ज्यादा अच्छे ढंग से मुझे साहित्यिक समझ ग्रहण करा सकते हैं। इसलिए आपकी शरण आया हंू।’’
मैं मन ही मन पुलकित हुआ। आनंदातिरेक से मुझे तुलसीकालीन रोमांच हो आया। बोला - ’’आपको यह विश्वास कैसे जमा कि मैं आपको साहित्यिक रचनाओं की आधुनिक बुनावट समझा सकता हूं?’’
वह बोले- ’’देखिये, मैं पहले ही आपको बता चुका हूं कि मैं खानदानी पाठक हूं। आपकी फोटो समेत संक्षिप्त जीवनी आपकी रचनाओं के साथ कई बार पढ़ चुका हूं। आप उन्नीस सौ फिफ्टी सिक्स के हिन्दी एम.ए. हैं। साहित्य मार्तण्ड व साहित्यचंद्र की उपाधियां देकर साहित्यिक संस्थाएं धन्य हो चुकी हैं। आप नगर के पत्रों में सर्वाधिक प्रकाशित और सीनियर साहित्यकार हैं। भला आपकी विद्वता में शक कैसे हो सकता है? आप तो मुझे सबसे पहले हास्य और व्यंग्य में अंतर समझा दीजिए। मै इन विधाओं की पहचान में गड़बड़ा जाता हूं।’’
मैं आश्वस्त हो गया कि जिज्ञासु की मुझमें पूरी-पूरी आस्था है। पालथी मारकर बैठते हुए मैनें पूछा- ’’मैं आपको हास्य-व्यंग्य शास्त्रीय शैली में समझाऊं कि प्रायमरी शैली में?’’
’’आप प्रायमरी शैली में ही समझाइये। बहुत वर्ष हो गये उस शैली से दूर रहते। आह, क्या ढंग था! सारे अक्षर, शब्द, लिंगभेद के साथ थोड़े ही समय में सीख गया था।’’ वह प्रसन्न भाव से बोले।
’’इस शैली में मुझे और आपको, दोनों को सहूलियत होगी,’’ मैंने बोलना शुरू किया- ’’तो पाठक जी, हास्य और व्यंग्य दोनों विधाएं हिन्दी साहित्य की भूमि पर इधर कई वर्षो से खूब फल-फूल रही हैं। अच्छा किसान वह होता है जो मिश्रित खेती करता है अर्थात् गेहूं के साथ सोयाबीन भी बोता है और अच्छे दाम कमाता है। उसी प्रकार अच्छा संपादक वह है जो अन्य विधाओं के साथ हास्य-व्यंग्य भी छापता है। इससे पत्र पत्रिकाओं की फसल याने सर्कुलेशन काफी बढ़ जाता है पर पाठकों की मुसीबत बढ़ जाती है। कौन सी रचना गेहूं है, कौन सी सोयाबीन समझ में नहीं आता।
’’अपने कथन को यूरोपीय समाज के उदाहरण से स्पष्ट करता हूं। जैसे यूरोपीय महिला कब मिस और मिसेज होती है, समझ पाना सरल नहीं होता। तलाक और विवाह इतनी जल्दी-जल्दी होते हैं कि सुबह जो मिसेज थी, शाम की किसी पार्टी में वह मिस होती है। यदि किसी ने अज्ञानवश उसे मिसेज कह दिया तो ’ईडियट’ या ’डेम फूल’ बनना पड़ सकता है। अगर दूसरे दिन उसे मिस कहा गया तो फिर कहने वाला मुश्किल में पड़ सकता है। वहां कोई मांग तो भरी नहीं जाती कि आप कोई स्पष्ट विचार बना सकें। उसी तरह यदि रचना के ऊपर व्यंग्य या हास्य छपा है तो ठीक वरना पाठक भ्रम में पड़कर अज्ञानी कहला सकता है।
’’जो भ्रमपूर्ण स्थिति यूरोपीय समाज की महिलाओं की है वही स्थिति भारतीय समाज में पुरूषों की डिग्रियों के बारे में है। कौन सच्चा बी.ए. है और कौन ठीक-ठाक एम.ए. इसपर कोई अंतिम निर्णय नहीं दे सकता। इसे भी मैं एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करता हूं।
’’एक सज्जन थे। उन्होंने अपने नाम की पट्टिका बनवाई। उसमें नाम के साथ बी.ए. दर्ज था। एक माह बाद उस पट्टिका पर उन्होंने बी.ए. पुतवाकर एम.एम. दर्ज करवा लिया। लोगों ने यह देखा और उनसे पूछा, ’भाई साहब, ऐसा कौन सा विश्वविद्यालय खुल गया है जो एक माह में एम.ए. की डिग्री बख्श देता है? तो उन्होने जवाब दिया।
’’हमारे देश में ऐसे अनगिनत विश्वविद्यालय हैं जो एक माह में क्या एक सप्ताह में एम.ए. करा सकते हैं। वन डे सीरीज पढ़कर क्या लोग एम.ए. नहीं हो रहे हैं?
’’आप लोग यदि संदर्भ और प्रसंगपर नजर रखते तो आप समझ जाते कि मेरा बी.ए. बेचलर अगेन’ होना था। आप लोग जानते हैं कि एक माह पूर्व पत्नी की मृत्यु से मैं पुनः कुआंरा हो गया था। वह तो उन विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की कृपा है जो अपने क्षेत्र का व्यापक और गहरा सर्वेक्षण करते हैं और जहां कोई बी.ए. उन्हें दिखा वे उसे पत्राचार पाठ्यक्रम द्वारा एम.ए. की डिग्री देने को उतावले हो उठते हैं। सो एक कुलपति की नजर मेरी डिग्री पर पड़ी और उन्होंने मुझे एम.ए. याने मेरिड अगेन बना दिया। आप स्वयं देखिये, मेरी डिग्री किस श्रेणी की है।’
’’दो क्षणों बाद उनकी ताजी पत्नी भाप उड़ाती चाय लेकर कमरे में दाखिल हुई। सबने देखा- डिग्री प्रथम श्रेणी की थी।’’
’’उदाहरणां से मैं समझ गया कि मिस और मिसेज, बी.ए. और एम.ए. भ्रम पैदा करने वाले शब्द हैं। हास्य और व्यंग्य भी भ्रम पैदा करते हैं। उस भ्रम को भेदने का साहित्यिक बाण दीजिए मुझे,’’ वह सज्जन बोले।
’’अब मैं उदाहरणों द्वारा आपको हास्य-व्यंग्य समझा रहा हॅू। यह शैली आपको माफिक आती है। देखिये शरीर में दांत हास्य का उदाहरण है और जीभ व्यंग्य का। हास्य ठोस होता है, दृश्य होता है और स्पष्ट चमकता है। वह खिलखिलाता है और शोर करता है। व्यंग्य पर्दे में रहता है, कोमल और लोचदार होता है। सभी तरह के मीठे, खट्टे, कड़वे चिरपिरे स्वाद की अनुभूति कराता है। व्यंग्य आकारहीन होता है वाणी और शब्दों की वक्र सार्थकता से पैंतरे बदल-बदलकर वार करता है। वह अन्दर तक धंसता चला जाता है पर गहराई नापी नहीं जा सकती। वह इतनी प्यारी मार करता है कि घायल मुस्कराता रहता है, चमत्कृतसा होकर वाह-वाह करता है। हास्य छुरा है, नंगा रहता है, सीधा घुसता है। छुरा घोंपने में कोइ कुशलता की दरकार नहीं होती। व्यंग्य तलवार है, मखमली म्यान में रहती है। अपनी वक्रता के अनुसार तिरछी मार करती है, गहराई तक घुसती है और चीर देती है पर चालक में उच्चकोटि की निपुणता की मांग करती है। ऐसी निपुणता की कि घायल धूल चाटता हुआ भी ’वाह वाह’ करता है।
’’हास्य नाटकों का विदूषक है। वह अपनी विचित्र वेषभूषा चुलबुले-पन और बनावटी हरकतों से हास्य पैदा करता है। व्यंग्य नाटकों का राजा होता है। गंभीर रहता है। अनेक रानियां रखता है जो एक-दूसरों से तो जलती हैं पर राजा की कृपा चाहती हैं। राजा स्थितियों को उपजाता है और उन स्थितियों का बेमानीपन आपको सोचने-विचारने पर मजबूर कर देता है।
’’राजनीतिज्ञों में गांधी एक जबर्दस्त प्रभावशील व्यंग्य था अपने युग का। एक जीता जागता साक्षात्् व्यंग्य बनकर ब्रिटिश साम्राज्य के सम्मुख वह अपनी पूरी गरिमा के साथ प्रस्तुत हुआ। ब्रिटिश सम्राट और उसके सभी कारिन्दे गांधी के व्यंग्य से घायल हो जाते थे। वह उनके सामने अपनी क्षीण काया और अघनंगापन लेकर इस तरह मुस्कराता था कि उसकी छवि बढ़ जाती थी और सामने वालों का पानी उतर जाता था पर फिर भी वे ’वाह वाह’ करते थे और सोचने-विचारने को मजबूर हो जाते थे। आज के सारे राजनीतिज्ञों की सादगी, देशभक्ति और जनहित चिन्ता एक ठहाकेदार हास्य है। सारी जनता देख-देख हंसती तो है पर अंदर-अंदर आह भी भरती है।
’’फूलों में गोभी का फूल हास्य है और टेसू का फूल व्यंग्य। व्यंग्य का रंग, रूप, आकार आकर्षक होता है। उसकी वक्रता और सुगंधहीनता व्यंग्य पैदा करती है और विचारणीय होती है। गोभी का फूल किसी को भेंट करिये, दर्शक हंस पडंेगे। टेसू का फूल भेंट करने पर दर्शकों को उसके प्रतीकार्थ पर विचारों में डूबना-उतरना पडे़गा।
’’यदि कोई लिखता है, ’मेरी पत्नी सुंदर और समझदार है’ तो यह व्यंग्यवाक्य हुआ। यदि यह लिखा जावे कि ’मेरी प्रेमिका अथवा साली कुरूप या मूर्ख है’ तो वह हास्य वाक्य हुआ।’’
’’हास्य व्यंग्य लेखक की कुशलता पर उदाहरणसहित टिप्पणी करो, इस प्रश्न का क्या उत्तर होगा?’’ पाठक जी ने पूछा।
’’हास्य लेखक शब्दों के बेढंगे प्रयोगों से हास्य उत्पन्न करता है अतः हास्य के लिए ऊंचे दर्जे की कुशलता की आवश्यकता नहीं होती। व्यंग्य स्थितियों की प्रस्तुत की वक्ता और भंगिमा पर निर्भर करता है अतः व्यंग्यकार ऊंचे दर्जे का कुशल कलाकार होता है। हास्य लेखक अपने नाम के साथ कोई मजाकिया उपनाम जरूर लगाता है पर व्यंग्यकार अपने नाम और अपनी कुशल क्षमता से ही विख्यात होता है।
’’हास्य हाथी है, गेंडा है पर व्यंग्य चीते-सी चतुरता रखता है। वह कब, कहां और कैसे हमला कर देगा, कितनी चपलता से करेगा, कोई पूर्वानुमान नहीं लगा सकता। हमला करके, गहरे तक घायल करके वह चतुराई से बच निकलेगा अगले शिकार के लिए। ऐसी प्राकृतिक चतुरता, प्रज्ञा का धनी होता है कुशल व्यंग्यकार।’’
कुछ क्षण मैं ठहरा। फिर पूछा- ’’पाठक जी, अब आप हास्य व्यंग्य के अंतर को समझ गये होंगे?’’
’’जी हां। अच्छी तरह समझ गया। आपका हास्य-व्यंग्य में अंतर समझाना हास्य है और मेरा समझने आना एक व्यंग्य,’’ कहते हुए पाठक जी उठ खड़े हुए और नमस्कार कर चलते बने।

नवल जायसवाल की चित्रमयी भावात्मक कविताएं

शब्दहीन संयम

1.आज फूल नहीं झरेंगे और
न ही शूल बाहर जाएंगे
शब्द प्रवेष से वंचित हैं
वे अपाहिज हैं बिना घटना के
न तो उन्होंने कुछ दिया और
न ही उनसे कुछ मिला

2.शून्य ने आसन जमाया है
कथ्य को बाहर का रास्ता दिखाया है
मेरे चक्रधारी ने भी अपना चाक नहीं घुमाया है
मेरी संवेदनाओं के साथ
मिट्टी को चाक पर नहीं जमाया है ,

3. सभी हाथों की क्रियाषीलता
निष्क्र्रियता आज अगढ़ है
कुंभकार को चक्रवर्ती कहूं तो कैसे कहूं
सब तो स्थिर है
पराकाष्ठा के स्वर कहते हैं ,

4.मैं घूम रहा हूं पृथ्वी के साथ
उसकी धुरी पर मेरे गांव की नदी
अपने जल के न्यूनतम षिखर तक चली गई है
एक नए अध्याय की तरह ,

5.ये नकारात्मक घटक
मेरे साथ क्यों आ रहे हैं
मां कहती है जल्दी सो जा
सुबह पानी लेने जाना है
सरकारी टैंकर आयेगा
पानी के बर्तन औंधे हैं
पेन्दी पेन्दी होती है
तली का एक और नाम ,

नवल जायसवाल: सुपरिचित चित्रकार और कवि हैं । जलेस कोलार इकाई भोपाल के शुभचिंतक और सहयोगी ।

कुमार अंबुज का एक उल्लेखनीय वक्तव्य

देखता हूं कि प्रतिबद्धता को लेकर कुछ लोग इस तरह बात करते हैं मानो प्रतिबद्ध होना, कट्टर होना है । जबकि सीधी-सच्ची बात है कि प्रतिबद्धता समझ से पैदा होती है, कट्टरता नासमझी से । प्रतिबद्धता वैचारिक गतिषीलता को स्वीकार करती है , कट्टरता एक हदबंदी में अपनी पताका फहराना चाहती है । प्रतिबद्धता दृढ़ता और विष्वास पैदा करती है , कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठि भाव । प्रतिबद्ध होने से आप किसी को व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते हैं, कट्टर होने से व्यक्तिगत शत्रुताएं बनती ही हैं । प्रतिबद्धता सामूहिकता में एक सर्जनात्मक औज़ार है और कट्टरता अपनी सामूहिकता में विध्वंसक हथियार । प्रतिबद्धता आपको जिम्मेवार नागरिक बनाती है और कट्टरता अराजक । जो प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते हैं, वे लोग कुतर्कों से प्रतिबद्धता को कट्टरता के समकक्ष रख देना चाहते हैं ।

कुमार अंबुज की एक महत्वपूर्ण कविता

तुम्हारी जाति क्या है ?

तुम्हारी जाति क्या है कुमार अंबुज ?
तुम किस-किस के हाथ का खाना खा सकते हो
और पी सकते हो किसके हाथ का पानी ?

चुनाव में किस समुदाय को देते हो वोट
आॅफिस में किस जाति से पुकारते हैं लोग तुम्हें
जन्म पत्री में लिखा है कौन-सा गौत्र
और कहां ब्याही जाती हैं तुम्हारी बहन-बेटियां ?

बताओ अपने धर्म और वंषावली के बारे में
किस जगह जाकर करते हो तुम प्रार्थनाएं ?

बताओ कुमार अंबुज
इस बार दंगों में रहोगे किस तरफ
और मारे जाओगे किसके हाथों ?

वरिष्ठ कवि श्री कुमार अंबुज देष के जाने-माने कवि हैं । उनकी कविताओं ने न सिर्फ नए मानदंड स्थापित किए हैं अपितु चीज़ों-घटनाओं को अलग दृष्टि से देखने का नज़रिया भी विकसित किया है । अगले माह 13 अप्रैल को श्री कुमार अंबुज का जन्मदिन है । उन्हें हमारी हार्दिक शुभकामनाएं ।

Monday, March 15, 2010

अमिताभ मिश्र की तीन कविताएं

देखो तो सही खड़े हो कर एक साथ

तुम जो उठाते हो हथियार वह भी तो वही उठाता है हथियार
जो तलवार जितनी धारदार तुम्हारी है उतनी ही वह उसकी भी है
जैसे बल्लम भाले कट्टे, बम वगैरा तुम्हारे हंै
वैसे के वैसे बल्कि वही के वही उसके भी हैं
एक ही दूकानदार से खरीदे हुए
जो चमक, लपट, भभक, तम्हारी लगाई हुई आग में है
उतनी ही और वैसी ही चमक, लपट, भभक उसकी लगाई आग में है
कहां है फर्क तुम में और उसमें
जैसे बाल तुम्हारे जैसी खाल तुम्हारे
जैसे हाथ पांव दिल दिमाग तुम्हारे
वैसा ही वैसा ही तो सब कुछ है उसके भी पास
फिर क्या है
वह क्या है
जो तुम्हारी और उसकी आंख में
नफरत एक साथ एक बराबर रख देता है
फर्क तो उन भवनों में भी कछ खास नही है
जो हैं उपासनागृह तुम्हारे और उसके
मतलब और मकसद भी एक ही हैं
तुम्हारी और उसकी प्रार्थना के तुम्हारे और उसके धरम के
फिर क्या है
वह क्या है
जो चढ़ा देता है गुम्बद पर एक को
फिंकवा देता हैं मांस
क्या है
वह क्या है जो हकाल देता है तुम दोनों को
लड़ने को एक दूसरे के खिलाफ
एक जैसे ही दिल धड़कता है तुम्हारा भी और उसका भी
डर में नफरत में रफ्तार एक जैसी एक साथ ही तेज होती है
फिर क्या है, वह क्या है जो बोता है एक सा डर
तुम्हारे उसके दिलों में एक साथ एक दूसरे के खिलाफ
प्यार तुम जैसे करते हो वैसे ही वह भी करता है
दुःख भी तो हैं एक जैसे तुम्हारे के लिए भी उसके लिए भी
बहुत ज्यादा बहुत लंबे समय के लिए
सुख भी तो हैं बहुत कम एक ही जैसे दोनों के लिए
सब कुछ एक जैसा और लगभग
एक ही होने के बावजूद
क्या है! वह क्या है!
कौन है! वह कौन है!
कहाॅं है ! वह कहाॅं है!
जो बोता एक हाथ से नफरत, डर
काटता दूसरे से प्यार, हमदर्दी, भाईचारा
पर अब तो दिख रहा है चेहरा उसका साफ़ साफ़
अलग होता जा रहा है एक ही राग अलापता
दरअसल हिटलर फिर से वापस आया है
समय के साथ बुढ़ापे की विकृति ले कर
वही है, वही है
वैसा ही है, वैसा ही है वह
जो लगातार कोशिश में अलग करने की
तुमको उससे उसको तुमसे
तो होते क्यों नहीं एक
क्यों नहीं उठाते आवाज एक साथ
वहीं हां वही
आवाज दो हम एक हैं वाली आवाज
और एक जैसे एक साथ
रौंदते क्यों नहीं दिग्विजय के भ्रम को
एक जाति के तोड़ दो दुष्चक्र
काट दो वापस लौटाते काल के घोड़े की रासें
और देखो तो सही खड़े हो कर एक साथ
कि किस समय और कहां खड़े हो
तुम और वह एक साथ



सबसे बड़ी उमर

अपनी ही बराबरी के
उम्र के बच्चों को
घर से स्कूल लाती
स्कूल से घर छोड़ती
बच्ची की उम्र
दुनिया की सबसे बड़ी उमर है
वैसे भी उसका ब्याह तय हो चुका है
अपने से छः गुना उमर के मरद से
ब्याह के बाद होगी वह
किसी की मां किसी की बुआ
किसी की दादी
उसके मांग की सिन्दूर के लाल रंग की उमर
दुनिया की सबसे छोटी उमर है
और अनन्त काल तक सफेद रंग का
सच अपने भीतर समोए वह बच्ची
कब सचमुच औरत होगी
जिसकी उम्र दुनिया की
सबसे बड़ी उमर है ।



तीन सौ साठ बरस बाद

धरती तो तब भी घूम रही थी
जब गैलीलियो ने नहीं बताया था
और धरती तो अब भी घूम रही है
जब यह कहे हुए गैलीलियो को
तीन सौ साठ बरस से अधिक हो गए
इतने बरस बाद न धरती शर्मिन्दा
न गैलीलियो को कोई ग्लानि
न बचा वह उसके लिए
पर है चर्च आज
दी गई यातना पर गैलीलियो को
मंगवाई गई माफी गैलीलियो से
पर अब चर्च माफ कर रहा है
गैलीलियो को
मान रहा है धरती का घूमना
जो तब भी घूम रही थी
जब चर्च ने नही माना था

अमिताभ मिश्र:
सुपरिचित कवि और अप्रतिम कथाकार भी हैं । भोपाल में रहते हैं, जलेस के वरिष्ठ साथी ।